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Shraddha Walker Case: क्या वाकई, हाल ही में हुए इस काण्ड से हम कुछ सीख सकते है?


जरूरी बात

इस पूरे आर्टिकल में धर्म शब्द का प्रयोग किसी भी एक तरह के समूह को दर्शाने के लिए किया गया है।

आगे बढ़ने से पहले मैं चाहूंगा की आप इस आर्टिकल को पड़ते वक्त खुले विचार से सोचें और अपनी सोचने की सीमा को तोड़, उसके पार देखने कि कम से कम एक बार कोशिश तो करें।

-धन्यवाद


तो मैं आप सबको बता दूं कि मैं किसी भी प्रकार के भगवान को नहीं मानता, आप मुझे नास्तिक कह सकते हैं। मैं नास्तिक इसलिए नहीं जैसा काफी आस्तिक लोग विचार रखते हैं नास्तिक लोगों के लिए कि उसे कुल या मॉडर्न दिखना है। असल में मेरा मानना है कि किसी भी प्रकार का धर्म इंसान को मैनिपुलेट और कंट्रोल करता है वह उसके नजरिए को एक सीमा प्रदान करता है और एक समय के बाद उस इंसान के लिए उस सीमा से परे देखना नामुमकिन जितना मुश्किल हो जाता है। साथ ही एक बच्ची की उसी की चौखट पर देहांत हो जाता है, वो उसे बचाने नहीं आता और तुम मुझसे कह रहे हो कि अपने एग्जाम से पहले उसके आगे अपना मस्तिष्क झुका के जाऊ। तुम्हे लगता है वो तब तो कहीं व्यस्त था पर तुम्हारा एग्जाम दिलाने जरूर आएगा। यकीन करो अगर वो आ भी गया तो मैं चीटिंग करने से इंकार कर दूं।

खैर  यह एक अलग विषय है लेकिन मैंने बताया ही क्यों कि मैं किसी भी प्रकार के भगवान को नहीं मानता। आखिर यह बताना इतना जरूरी क्यों था?

जैसा की मैंने बताया कि मैं किसी भी प्रकार की भगवान को नहीं मानता तो मेरा लोगों को देखने का नजरिया शायद आप लोगों से अलग हो सकता है मेरे लिए भगवान समान जैसा कुछ नहीं होता मेरी आंखें हर इंसान को इंसान के रूप में ही देखती है। मैं साफ-साफ माता पिता को भगवान समान या भगवान कहने से ठुकराता हूं और साथ ही औरतों को किसी तरह की देवी कहने से भी। माता-पिता हो, कोई औरत हो, शिक्षक हो, मैं उन्हें समान यानी केवल एक इंसान के रूप में ही देखता हूं। साथ ही मैं किसी एक धर्म की बातों पर कभी पूरी तरह यकीन नहीं करता। मैं हर धर्म को शक की नजरों से देखता हूं क्योंकि मुझे पता है या यू कहना सही रहेगा कि मेरे लिए कहीं भी या किसी के द्वारा लिखी हुई बातें पूर्ण सत्य नहीं है और यह नजरिया मेरे लिए जिंदगी को देखने का एक नया आयाम खोल देता है।

हाल ही में एक दुर्घटना हुई, वैसे मर्डर कहना ज्यादा सही रहेगा। मुझे यकीन है आप सब ने उसके बारे में सुना ही होगा जहां एक इंसान ने एक लड़की की हत्या कर उसके शरीर के 35 टुकड़े कर उन्हें अलग-अलग जगह फेंक दिया। सच बोलूं तू एक वक्त था जब यह सारी बातें, घटनाएं मुझे हैरान कर दिया करती थी। पर अब ऐसा कुछ नहीं है क्योंकि मैंने ही नहीं हम सब ने ऐसी घटनाएं पहले भी कई बार सुनी है, फिर चाहे यह किसी फिल्म में हो या हकीकत है। आखिरकार है तो सब इंसान के दिमाग की रचनाएं हीं, जो किताबों में की जाए वह बस एक कहानी, जो हकीकत में की जाए वो हत्या। अंतर सिर्फ इतना ही है पर उपज रचना है और रचना सोच है।

तो आज मैं उस हत्या की जगह उस सोच पर बात करना चाहूंगा।

आजकल की एक बहुत ही खूबसूरत बात है कि चीजें बहुत रफ़्तार से चलती है। कभी-कभी यह शाप का भी काम करती है पर जो भी हो। तो जब यह कांड लोगों के सामने आया तो बहुत चर्चा का विषय रहा।

जो उन चर्चाओं में से एक सबसे बड़ी चर्चा चल रही थी वह यह थी कि “अपने पेरेंट्स पर भरोसा करो, उनकी सुनो, उनसे ज्यादा आपकी अच्छाई के लिए कोई नहीं सोच सकता और उनके प्रेम के अलावा और कुछ सच नहीं… इत्यादि। लोग इसे एक जीवन का सबक तक कह रहे थे।


वैसे तो यह सब या ऐसी बातें मुझे किसी परियों की कहानियों की तरह लगती है, उससे कुछ ज्यादा नहीं। जो लगती तो बच्चों को सच है परन्तु हकीकत में उनके अस्तित्व का कोई निशान तक नहीं होता।

जब मैं सोशल मीडिया पर इस कांड के बारे में पोस्ट देख रहा था। तो मुझे लग रहा था मानो असल अपराध यह नहीं कि “किसी इंसान ने एक इंसान की हत्या कर दी, बल्कि असल अपराध तो यह है कि एक लड़की ने अपने माता-पिता की बात नहीं सुनी, उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया, और यह कुछ नहीं बस उसका एक नतीजा है, एक सबक।”

पर यह बस एक कहानी है और मैं चाहूंगा लोग और भी कहानियां सुने यह मेरे दिमाग की रचना हो सकती है पर जो मेरे लिए केवल एक कागज पर रचना है वह किसी के जीवन में असल रचना है।

एक लड़की ने अपने माता-पिता की बात मानी और उसकी आगे चल उन्होंने एक अपनी मर्जी के अच्छे घर में शादी कर दी। उसके पति ने पहली रात यह तक नहीं पूछा कि वह सेक्स करने में राजी है भी कि नहीं, उसे न चाहते हुए भी करना पड़ा और केवल उस रात नहीं हर रात।

एक लड़की ने अपने माता-पिता की बात मानी और उसकी भी आगे चल उन्होंने एक अच्छे, अपनी मर्जी के घर में शादी कर दी। आगे चल पता चला उसका पति और उसे रोज मारता-पीटता और लड़की के माता-पिता  रिश्तों से बंधे थे कि वह मेहमान है उसे कैसे कुछ कह सकते हैं।


एक लड़की की शादी हुई उसकी शादी के बाद मानो उसका अपना जीवन तो जीवन ही ना रहा। उसने अपनी पूरी जिंदगी बस अपने पति और उसके माता-पिता को खुश करने में निकाल दी। देखने से कभी ऐसा महसूस भी ना होता था कि उसने कभी कुछ अपने सपने भी देखे थे।

एक ने अपने माता-पिता की बात मान शादी की। उसका पति बच्चा कर कहने लगा कि उसका मन भर गया। उसने उसे तलाक दे दिया, ना वह ठीक से अपने पैरों पर कभी खड़ी हो पाई और ना उसके माता-पिता को वह  शादी के बाद रास आयी, वह उन्हें बस एक बोझ लगने लगी, उनके लिए एक धब्बा बन गयी। और जब कोई रास्ता नहीं दिखा तो उसने अपनी पीड़ा को कम करने के लिए एक रात पंखे से लटक जाना सही समझा।

एक पिता को पता चला कि उसकी बेटी किसी और जाति के लड़की को प्यार करती है उसने अपनी बेटी का अपने ही हाथों से गला काट कर फेंक दिया।

और ना जाने ऐसी कितनी कहानियाँ है, जो हकीकत बयां करती है।

एक और बात जो मैं अक्सर सुनता रहता हूं ऐसे लोगों से जिन्हें समाज एक अच्छा या आदर्श बेटा या बेटी के रूप में मानता है कि माता-पिता से बेहतर हमारे लिए कोई और अच्छा नहीं सोच सकता। 

तो बता दूँ की हमारी सोच हमारी मान्यताओं पर बहुत निर्भर करती है। अच्छा बुरा जैसा कुछ है ही नहीं क्योंकि यह दुनिया एक नहीं जितनी इंसान उतनी ही अलग-अलग दुनिया। आप मानो या ना मानो आपका बेटा या बेटी आप नहीं ना ही आपके माता पिता आप हैं। हम सब की दुनिया पूरी तरह अलग है। जरूरी नहीं जो आपके माता-पिता की दुनिया में आपके लिए अच्छा है वह आपकी दुनिया में भी अच्छा हो, या इसका उल्टा कह लो।

यह कहना कि आपके बारे में सबसे अच्छा केवल आपके माता-पिता ही सोच सकते हैं यह बात मुझे ऐसी लगती है जैसे असल जिंदगी में यह कहना कि हैरी पॉटर सच में है।

उन लोगों के लिए जो यह कहने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं कि मेरे सारे फैसले मेरे माता-पिता ही लेते हैं। उनके लिए कहना चाहूंगा पर उससे पहले मैं बता दूं कि यह मेरी खुद की सोच है, आपकी अलग हो सकती है पर मैं कहना चाहता हूं कि ऐसे लोगों का अपना वजूद ही क्या है? आप ईश्वर की कहे, प्रकृति की कहे, चाहे जिस की भी रचना कहे इंसान को मुझे लगता है ऐसे लोग इस रचना का हास्य उड़ा रहे हैं क्योंकि करोड़ों की आबादी के बाद भी सबका अलग-अलग होना कुछ तो महत्व रखता ही होगा।

तुम्हारे और मुझ में बस इतना अंतर है कि तुम कह रहे हो कि यही कहानी सच है, मैं कह रहा हूं कि यही नहीं यह कहानियां भी सच है। आप केवल वह स्वीकार करना चाहते हैं जो आप चाहते हैं, मैं जैसा है वैसे ही चीजों को स्वीकार करना चाहता हूं।

अंत में एक और बात, मुझे पता है कि एक तरफ आप ऐसी पोस्ट शेयर कर रहे हो और दूसरी तरफ आप ही घर पर झूठ बोल किसी से मिलने जा रहे।

वैसे भी मुझे लगता है यह पेरेंट्स तो बहाना है। लोग असल क्राइम न तो मर्डर को मान रहे हैं ना न पेरेंट्स की बात ना मानने को, असल में कुछ लोगो को क्राइम यह लगता है उस लड़की ने कैसे किसी और धर्म के लड़के को चुना।


जाते जाते एक और बात, पता नहीं लोग यह एक लाइन कब समझ पाएंगे

Innocent until proven guilty

-Thank you

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